चिंता से विनाश होता है, जबकि चिंतन से विकास होता है :- श्री जीयर स्वामी।
मनुष्य को चिंता नहीं चिंतन करनी चाहिए। चिंता से विनाश होता है, जबकि चिंतन से विकास होता है। चिंता ह्रास का कारण बनता है और कोई परिणाम नहीं दे पाता है। श्री जीयर स्वामी ने सुखदेव जी की जन्मोपरांत तप के लिए वन गमन प्रसंग की चर्चा करते हुए कहा कि संन्यासी चार प्रकार के होते हैं, कुटीचक, बहुदक, हंस और परमहंस । कुटीचक संयासी गृहस्थ जीवन के अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन के बाद घर में रहते हुए निर्लिप्त रहते हैं। बहुदक भी कुटीचक के समान होते हैं। हंस संन्यासी दुनिया को नश्वर मान दुनिया में रहते हैं। जैसे-कमल, पानी में रहते हुए भी जल के प्रभाव से मुक्त रहता है। परमहंस सन्यासी दुनिया के किसी विषय वस्तु से सरोकार नहीं रखता। बल्कि स्थित प्रज्ञ की स्थिति में रहता है।
उन्होंने कहा कि हर काल में समाज संचालन के नियम-कायदे विभिन्न ऋषियों एवं शासकों द्वारा निर्धारित किए जाते रहे हैं। जैसे मुगलकाल, अंग्रेजी शासन और स्वतंत्रोत्तर भारत के कानून आदि। इसी तरह ऋषियों द्वारा भी त्रेता, सत्युग, द्वापर और कलयुग में नीति निर्धारण किये गये हैं
जिन्हें स्मृति कहते हैं। कलियुग में पराशर स्मृति मान्य है। पराशर स्मृति के अनुसार सभी वर्ण के लोग अपने अनुकूलता के अनुसार जीविकोपार्जन करने के लिए स्वतंत्र हैं।
स्वामीजी ने कहा कि मनुष्य जन्म के साथ ही तीन ऋणों मातृ-पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण से युक्त होता है। मातृ-पितृ ऋण से उऋण (ऋणमुक्त) होने के लिए माता-पिता की जीवनपर्यन्त सम्यक प्रकार से सेवा और मृत्योपरांत श्राद्ध एवं पिंडदान से मुक्ति मिलती है। यज्ञ, पूजा एवं भंडारा से देव ऋण से मुक्ति मिलती है। जबकि सद्ग्रंथों के नियमित अध्ययन से ऋषि ऋण से व्यक्ति उऋण होता है। तीनों ऋणों से उऋण होनेवाला ही पुत्र कहलाने का हकदार है। उन्होंने कहा कि तीनों ऋण से मुक्ति पाने वाला परम धाम को सहज ही प्राप्त कर लेता है।
स्वामी जी ने कहा कि कलियुग की आयु 4 लाख 32 हजार वर्ष, द्वापर की आयु 8 लाख 64 हजार, त्रेता की 12 लाख 96 हजार और सतयुग की आयु 17 लाख 28 हजार वर्ष है। कलियुग में अभी 6 हजार वर्ष ही बीता है।
उन्होंने कहा कि संत और ईश्वर से कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए बल्कि आर्तभाव से स्पष्ट करनी चाहिए। विभीषण ने अपने को राक्षस कुल में जन्मा दशानन का भाई बताया और प्रभु ने उन्हें सहर्ष स्वीकार किया।

