श्री बंशीधर नगर:(प्रशांत सहाय)

निन्दा इसलिये बुरी लगती है कि हम प्रशंसा चाहते हैं। हम प्रशंसा चाहते हैं तो वास्तवमें हम प्रशंसाके योग्य नहीं हैं; क्योंकि जो प्रशंसा के योग्य होता है, उसमें प्रशंसाकी चाहना नहीं रहती।सांसारिक सुखकी इच्छाका त्याग कभी-न-कभी तो करना ही पड़ेगा तो फिर देरी क्यों? जहाँतक बने, दूसरोंकी आशापूर्तिका उद्योग करो, पर दूसरोंसे आशा मत रखो।
दूसरों से अच्छा कहलाने की इच्छा बहुत बड़ी निर्बलता है। इसलिये अच्छे बनो, अच्छे कहलाओ मत ।मनुष्यको कर्मोंका त्याग नहीं करना है, प्रत्युत कामनाका त्याग करना है। मनुष्यको वस्तु गुलाम नहीं बनाती, उसकी इच्छा गुलाम
बनाती है। यदि शान्ति चाहते हो तो कामनाका त्याग करो।कुछ भी लेनेकी इच्छा भयंकर दुःख देनेवाली है।जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी-न-किसीके पराधीन होना ही पड़ेगा।अपने लिये सुख चाहना आसुरी, राक्षसी वृत्ति है।जैसे बिना चाहे सांसारिक दुःख मिलता है, ऐसे ही बिना चाहे सुख भी मिलता है। अतः साधक सांसारिक सुखकी इच्छा कभी न करे।
भोग और संग्रहकी इच्छा सिवाय पाप करानेके और कुछ काम नहीं आती। अतः इस इच्छाका त्याग कर देना चाहिये अपने लिये भोग और संग्रहकी इच्छा करनेसे मनुष्य पशुओंसे भी नीचे गिर जाता है तथा इसकी इच्छाका त्याग करनेसे देवताओंसे भी ऊँचे उठ जाता है जो वस्तु हमारी है, वह हमें मिलेगी ही; उसको कोई दूसरा नहीं।
विचार करो, जिससे आप सुख चाहते हैं, क्या वह सर्वथा सुखी है? क्या वह दुःखी नहीं है? दुःखी व्यक्ति आपको सुखी कैसे बना देगा? कामना छूटनेसे जो सुख होता है, वह सुख कामनाकी पूर्तिसे कभी नहीं होता।परमात्माकी उत्कट अभिलाषा चाहते हो तो संसारकी अभिलाषाको छोड़ो।जो बदलनेवाले (संसार) की इच्छा करता है, उससे सुख लेता है, वह भी बदलता रहता है अर्थात् अनेक योनियोंमें जन्मता-मरता रहता है।जिसको हम सदाके लिये अपने पास नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करनेसे और उसको पानेसे भी क्या लाभ ? कामनाके कारण ही कमी है। कामनासे रहित होनेपर कोई कमी बाकी नहीं रहेगी।कामनाका सर्वथा त्याग कर दें तो आवश्यक वस्तुएँ स्वतः प्राप्त होंगी; क्योंकि वस्तुएँ निष्काम पुरुषके पास आनेके लिये लालायित रहती हैं ।जो अपने सुखके लिये वस्तुओंकी इच्छा करता है, उसको वस्तुओंके अभावका दुःख भोगना ही पड़ेगा।जीवन तभी कष्टमय होता है, जब संयोगजन्य सुखकी इच्छा करते हैं और मृत्यु तभी कष्टमयी होती है, जब जीनेकी इच्छा करते हैं यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करनेका प्रयत्न करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते। परन्तु इच्छाके अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं न और न मृत्युसे बचाव ही होता है इच्छाका त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं है और इच्छाकी पूर्ति करनेमें सब पराधीन हैं, कोई स्वतन्त्र नहीं है सुखकी इच्छा, आशा और भोग- ये तीनों सम्पूर्ण दुःखोंके कारण हैं।नाशवान्की चाहना छेड़नेसे अविनाशी तत्त्वकी प्राप्ति होती है ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये – इसीमें सब भरे हुए हैं ।हमारा सम्मान हो— इस चाहनाने ही हमारा अपमान किया है।मनमें किसी वस्तुकी चाह रखना ही दरिद्रता है। लेनेकी इच्छावाला सदा दरिद्र ही रहता है नाशवान्की इच्छा ही अन्तःकरणकी अशुद्धि है
