धनके रहते हुए तो मनुष्य सन्त बन सकता है, पर धन की लालसा रहते हुए मनुष्य सन्त नहीं बन सकता :- श्री जीयर स्वामी जी महाराज।
दूसरों की बुराई करनेसे तो पाप लगता ही है, बुराई सुनने और कहने से भी पाप लगता है।अपने कल्याण की तीव्र इच्छा होने पर साधक के पाप नष्ट हो जाते हैं।भगवान् से विमुख होकर संसार के सम्मुख होनेके समान कोई पाप नहीं है।अब मैं पुनः पाप नहीं करूंगा- यह पाप का असली प्रायश्चित्त है। मनुष्य जन्म में किये हुए पाप नरकों एवं चौरासी लाख योनियोंमें भोगनेपर भी समाप्त नहीं होते, प्रत्युत शेष रह जाते हैं और जन्म-मरणका कारण बनते हैं।जहाँ मनुष्य अनुकूलतासे सुखी और प्रतिकूलतासे दुःखी होता है, वहाँ ही वह पाप-पुण्यसे बँधता है।
नाशवान् को महत्त्व देना ही बन्धन है। इसीसे सब पाप पैदा होते हैं।अगर सुखकी इच्छा है तो पाप करना न चाहते हुए भी पाप होगा। सुखकी इच्छा ही पाप करना सिखाती है। अतः पापोंसे छूटना हो तो सुखकी इच्छाका त्याग करो।नामजप अभ्यास नहीं है, प्रत्युत पुकार है । अभ्यासमें शरीर – इन्द्रियाँ – मनकी और पुकारमें स्वयंकी प्रधानता रहती है। नामजप सभी साधनों का पोषक है। भगवान का नाम सब के लिये खुला है और जीभ अपने मुख में है, फिर भी नरकों में जाते हैं – यह बड़े आश्चर्य की बात है !भगवान् का होकर नाम लेनेका जो माहात्म्य है, वह केवल नाम लेनेका नहीं है। कारण कि नामजपमें नामी ( भगवान्) का प्रेम मुख्य है, उच्चारण (क्रिया) मुख्य नहीं है।कोई हमारा अपकार करता है तो उससे वस्तुतः हमारा उपकार ही होता है; क्योंकि उसके अपकारसे हमारे पाप कटते हैं।संख्या (क्रिया) की तरफ वृत्ति रहनेसे निर्जीव जप होता है और भगवान्की तरफ वृत्ति रहनेसे सजीव जप होता है। इसलिये जप और कीर्तनमें क्रियाकी मुख्यता न होकर प्रेमभावकी मुख्यता होनी चाहिये कि हम अपने प्यारेका नाम लेते हैं !भगवान् का कौन-सा नाम और रूप बढ़िया है – यह परीक्षा न करके साधकको अपनी परीक्षा करनी चाहिये कि मुझे कौनसा नाम और रूप अधिक प्रिय है।
रुपये मिलने से मनुष्य स्वाधीन नहीं होता, प्रत्युत रुपयोंके पराधीन होता है; क्योंकि रुपये ‘पर’ हैं।
धनके रहते हुए तो मनुष्य सन्त बन सकता है, पर धन की लालसा रहते हुए मनुष्य सन्त नहीं बन सकता। दरिद्रता धन मिलने से नहीं मिटती, प्रत्युत धन की इच्छा छोड़ने से मिटती है।मनुष्य की इज्जत धन बढ़ने से नहीं है, प्रत्युत धर्म बढ़ने से है। धन से वस्तु श्रेष्ठ है, वस्तु से मनुष्य श्रेष्ठ है, मनुष्य से विवेक श्रेष्ठ है और विवेकसे भी सत्-तत्त्व (परमात्मा) श्रेष्ठ है। मनुष्यजन्म उस सत्-तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये ही है।साधककी समझमें चाहे कुछ न आता हो, उसको भगवान्की शरण लेकर भगवन्नाम-जप तो आरम्भ कर ही देना चाहिये।भगवन्नामका जप और कीर्तन – दोनों कलियुगसे रक्षा करके उद्धार करनेवाले हैं।नामजप में प्रगति होने की पहचान यह है कि नाम जप छूटे नहीं।नामजप में रुचि नाम जप करने से ही होती है।रुपयों के कारण कोई सेठ नहीं बनता, प्रत्युत कँगला बनता है ! वास्तवमें सेठ वही है, जो श्रेष्ठ है अर्थात् जिसको कभी कुछ नहीं चाहिये।अभी जो धन मिल रहा है, वह वर्तमान कर्मका फल नहीं प्रत्युत प्रारब्धका फल है। वर्तमानमें धन प्राप्तिके लिये जो झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी आदि करते हैं, उसका फल (दण्ड) तो आगे मिलेगा !अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन हमारे काम आ जाय- यह नियम नहीं है; परन्तु उसका दण्ड भोगना पड़ेगा – यह नियम है।जहाँ रुपयोंकी जरूरत होती है, वहाँ परमार्थ नहीं होता, प्रत्युत रुपयोंकी गुलामी होती है।जैसे अपना दु:ख दूर करनेके लिये रुपये खर्च करते हैं, ऐसे ही दूसरेका दुःख दूर करनेके लिये भी खर्च करें, तभी हमें रुपये रखनेका हक है।धनके लिये झूठ, कपट, बेईमानी आदि करनेसे जितनी हानि होती है, उतना लाभ होता ही नहीं अर्थात् उतना धन आता ही नहीं और जितना धन आता है, उतना पूरा-का-पूरा काम आता ही नहीं। अतः थोड़ेसे लाभके लिये इतनी अधिक हानि करना कहाँकी बुद्धिमानी है? मरने पर स्वभाव साथ जायगा, धन साथ नहीं जायगा। परन्तु मनुष्य स्वभावको तो बिगाड़ रहा है और धनको इकट्ठा कर रहा है। बुद्धिकी बलिहारी है !

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