Home » अंतर्राष्ट्रीय » जब तक अपने लिए कुछ भी करने और पाने की इच्छा रहती है, तब तक नित्यप्राप्त परमात्मतत्व का अनुभव नहीं हो सकता: श्री जीयर स्वामी जी महाराज।

जब तक अपने लिए कुछ भी करने और पाने की इच्छा रहती है, तब तक नित्यप्राप्त परमात्मतत्व का अनुभव नहीं हो सकता: श्री जीयर स्वामी जी महाराज।

बंशीधर नगर:भगवत्प्राप्ति का सरल उपाय क्रिया नहीं है, प्रत्युत लगन है।अपनी प्राप्ति के लिये भगवान् ने यदि जीव को मनुष्य शरीर दिया है तो उसके लिये पूरी योग्यता और सामग्री भी साथ ही दी है । इतनी योग्यता और सामग्री दी है कि मनुष्य अपने जीवन में कई बार भगवत्प्राप्ति कर ले !उत्कट अभिलाषा की कमी से ही परमात्मप्राप्ति में देरी लगती है, उद्योग की कमी से नहीं।परमात्मा के साथ हरेक वर्ण, आश्रम, जाति, सम्प्रदाय आदि का समानरूप से सम्बन्ध है। इसलिये जो जहाँ है, वहीं परमात्मा को पा सकता है।एक असत्‌ का आश्रय लेकर असत् के द्वारा सत्को प्राप्त करने की चेष्टा करना महान् भूल है।जिसके लिये मनुष्य शरीर मिला है, उसकी प्राप्ति कठिन है तो सुगम क्या है ?भगवान्‌ के दर्शन के लिये क्या करें ? भगवान्‌ के नामका जप करें और भगवान्‌ से प्रार्थना करें कि ‘हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ तो इससे भगवान्‌ में प्रेम हो जायगा और प्रेम होने से भगवान् प्रकट हो जायँगे।जब तक अपने लिये कुछ भी ‘करने’ और ‘पाने’ की इच्छा रहती है, तब तक नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता।
भगवत्प्राप्ति केवल उत्कट अभिलाषा से होती है। उत्कट अभिलाषा जाग्रत् न होने में मुख्य कारण सांसारिक भोगों की कामना ही है।सत्ययुग आदि में बड़े-बड़े ऋषियों को जो भगवान् प्राप्त हुए थे, वे ही आज कलियुग में भी सब को प्राप्त हो सकते हैं।भोगों की प्राप्ति सदा के लिये नहीं होती और सबके लिये नहीं होती। परन्तु भगवान्की प्राप्ति सदाके लिये होती है और सबके लिये होती है।परमात्मा की प्राप्ति में भाव की प्रधानता है, क्रियाकी नहीं।भगवान् हठ से नहीं मिलते, प्रत्युत सच्ची लगन से मिलते हैं।परमात्मा की प्राप्ति में मनुष्य के पारमार्थिक भाव, आचरण आदि की मुख्यता है, जाति या वर्णकी मुख्यता नहीं।परमात्मप्राप्ति में विवेक, भाव और वैराग्य (रागका त्याग ) जितना मूल्यवान् है, उतनी क्रिया मूल्यवान् नहीं है।जब प्रत्येक क्रिया का आदि-अन्त होता है तो फिर उसका फल कैसे अनन्त होगा? अतः अनन्त तत्त्व (परमात्मा) क्रियासाध्य नहीं है। परमात्मप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा होने से एक विरहाग्नि उत्पन्न होती है, जो अनन्त जन्मों के पापों का नाश करके परमात्मप्राप्ति करा देती है।परमात्मप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा न होने में खास कारण है – सांसारिक सुख की इच्छा, आशा और भोग।कोई चीज समान रूप से सब को मिल सकती है तो वह परमात्मा ही है। परमात्मा के सिवाय कोई भी चीज समान रूप से सब को नहीं मिल सकती।हम परमात्मा के सिवाय और कुछ प्राप्त कर ही नहीं सकते, जो प्राप्त करेंगे, वह सब ‘नहीं’ में चला जायगा।परमात्मतत्त्व का अनुभव तभी होगा, जब ‘विषयभोग निद्रा हँसी जगतप्रीत बहु बात’ – ये पाँचों सुहायेंगे नहीं। साधकको भगवत्प्राप्ति में देरी होने का कारण यही है कि वह भगवान् के वियोग को सहन कर रहा है। यदि उसको भगवान्‌का वियोग असह्य हो जाय तो भगवान्‌के मिलनेमें देरी नहीं होगी। भगवान् क्रियाग्राही नहीं हैं, प्रत्युत भावग्राही हैं– ‘भावग्राही जनार्दनः’। अतः भगवान् भाव (अनन्यभक्ति) से ही दर्शन देते हैं, क्रियासे नहीं।परमात्म प्राप्ति वास्तव में सुगम है, पर लगन न होने के कारण कठिन है। जब तक असत् की कामना, आश्रय, भरोसा है, तबतक सत्का अनुभव नहीं हो सकता।

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